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Sunday, October 5, 2025

किताब मांगना गुनाह कब से हो गया?

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✍🏻 संपादकीय

राजस्थान की शिक्षा व्यवस्था पर यह एक करारा तमाचा है कि दो महीने बीत जाने के बाद भी गरीब मासूम बच्चों को निशुल्क पाठ्य पुस्तकें नहीं मिल पाई हैं। शिक्षा का अधिकार केवल कागजों में ही रह गया है और मैदान में बच्चों की आंखों में उम्मीदें धुंधली होती जा रही हैं। और जब एक शिक्षक – नोलाराम जाखड़ – ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की, तो सरकार ने बच्चों को किताबें नहीं, बल्कि शिक्षक को दंड का फरमान सुना दिया। सवाल उठता है: क्या गरीब बच्चों के लिए किताब मांगना सचमुच गुनाह है? यहां मैं बोलूंगा तो फिर कहोगे कि बोलता है।

राजस्थान की सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर अगर किसी ने सटीक व्यंग लिखना हो तो हालिया घटनाक्रम से बेहतर उदाहरण शायद ही मिले। कल्पना कीजिए—कक्षा में बैठे मासूम बच्चे, जिनकी आंखों में सपनों का संसार है, लेकिन हाथों में किताबें नहीं। सवाल उठाने वाला शिक्षक नायक बन सकता था, लेकिन यहां तो उसे खलनायक बना दिया गया।

सीकर जिले के नोलाराम जाखड़ ने बच्चों के हक की आवाज उठाई—“सरकार जी! दो महीने बीत गए, किताबें कहां हैं?” पर जवाब में किताबें नहीं आईं, बल्कि एपीओ का आदेश आ गया। अब बताइए, बच्चों को किताबें मांगना आखिर कौन सा अपराध है?

यह घटना शिक्षा तंत्र की उस सच्चाई को उजागर करती है, जहां सिस्टेम से सवाल पूछना सबसे बड़ा पाप बन गया है। सवाल यह नहीं कि बच्चों को किताबें कब मिलेंगी, बल्कि यह कि जो शिक्षक किताब मांगते हैं, उन्हें “किताबचोर” की तरह क्यों सजा दी जाती है? क्या शिक्षा के मंदिर में सच बोलना ही गुनाह है?

विडंबना यह है कि सत्ता की नीतियां और प्रशासनिक आदेश किताबों से ज्यादा चमकदार प्रेस विज्ञप्तियों में दिखाई देते हैं। मंत्री मंच से घोषणा करते हैं कि “हर बच्चे तक मुफ्त किताबें पहुंचाई जाएंगी” और सचिवालय में कागजों पर योजनाएं “संपूर्ण” लिखकर फाइल बंद कर दी जाती हैं। लेकिन जमीनी हकीकत? बच्चे अब भी खाली थैले लटकाकर स्कूल आते हैं।

यह प्रकरण केवल एक शिक्षक की एपीओ की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस पूरे सिस्टम का काला चेहरा है, जो गरीब और वंचित वर्ग के बच्चों की शिक्षा को ठेकेदारी मानसिकता से चला आ रहा है। लाखों बच्चे किताबों से वंचित हैं और सरकार “निशुल्क पुस्तक वितरण” का ढिंढोरा पीटकर वाहवाही लूट रही है। यह दोहरे चरित्र का सबसे खतरनाक रूप है—सच दिखाने वाले को सजा और झूठ बेचने वालों को इनाम।

आज जरूरत इस बात की है कि शिक्षक नोलाराम जाखड़ के मुद्दे को केवल “व्यक्ति विशेष का मामला” न समझा जाए। यह हर उस बच्चे की आवाज है, जो किताब के बिना स्कूल जाता है और खाली थैले में उम्मीद लेकर लौटता है। शिक्षा अगर मंदिर है, तो किताब उसकी आरती है। क्या सरकार चाहती है कि गरीब बच्चों के हाथों से यह दीपक ही छीन लिया जाए?

विडंबना देखिए, सरकार और तंत्र “शिक्षा का अधिकार” अधिनियम का गुणगान करते हैं, लेकिन जमीन पर शिक्षा का बुनियादी ढांचा ही खोखला किया जा रहा है। सरकारी विद्यालयों को जानबूझकर उजाड़ने की एक सुनियोजित साजिश है, जो शिक्षक बच्चों की सच्चाई पर रोशनी डालते हैं, उन्हें या तो एपीओ किया जाता है, या निलंबन की सजा दी जाती है। सवाल यह है कि क्या इस डराने-धमकाने की राजनीति से शिक्षा सुधरेगी, या और बर्बाद होगी?

यह समय आत्ममंथन का है। शिक्षा का मकसद सिर्फ कक्षा-कक्ष नहीं, बल्कि समाज की आत्मा को मजबूत करना है। यदि बच्चों को किताबें तक समय पर न मिलें, तो यह केवल प्रशासन की विफलता नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है। सरकार को चाहिए कि दोषियों पर कार्रवाई करे, न कि सच बोलने वालों पर।

सच्चा शिक्षक वही है जो बच्चों के हक के लिए अपनी कुर्सी, अपनी नौकरी और यहां तक कि अपनी सुविधा भी दांव पर लगा दे। नोलाराम जाखड़ जैसे शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ हैं। उन्हें दबाने की कोशिश करना, भविष्य की पीढ़ी को अंधकार में धकेलना है।

समाज क चाहिए कि इस साजिश का पर्दाफाश करे, बच्चों के अधिकारों की रक्षा करे और सरकार से सवाल पूछे—किताब मांगना गुनाह कब से हो गया?

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