संपादकीय@HareshPanwar
देश तेज़ी से बदल रहा है — तकनीक, रोज़गार के नए रूप, जीवनशैली के नये नियम। बदलती दुनिया के साथ जब नई पीढ़ी की सोच-रफ़्तार और पुरानी पीढ़ी के अनुभव के बीच खाई गहरी होती जा रही है, तो यह केवल पारिवारिक मामलों तक सीमित नहीं रहता; यह समाज की समरसता, घरेलू संतुलन और राष्ट्रीय जागरूकता पर असर डालता है। आज का “जनरेशन गैप” महज उम्र का अंतर नहीं, विचारों, मूल्यों, सामाजिक दृष्टिकोण और जीवन-शैली का फासला है — और यह फासला भरना हम सबका काम है। जहां मैं बोलूंगा तो फिर कहोगे कि बोलता है।
फर्क पहचानिए और उसकी जड़ों की तलाश कीजिए।
नई पीढ़ी की जीवनशैली तेज़, मोबाइल-प्रधान और अवसरवादी है। वे वैश्विक प्रवृत्तियों को अपनाती है, करियर-सोच में आगे रहती है और बदलते करियर पैटर्न में स्वतन्त्रता चाहती है। दूसरी ओर बुज़ुर्गों की पहचान अनुभव, परंपरा और सुरक्षा-प्रथाओं से जुड़ी रही है; वे संबंधों और सम्मान के पुराने मानदण्डों पर विश्वास रखते हैं। जब नई पीढ़ी “तुरंत” और “व्यावहारिक” होना चाहती है, तो पुराने मान्य नियमों का पालन टूटने लगता है — यही संघर्ष जन्म लेता है।
आर्थिक दबाव, शहरों की तंग-राह-ज़िंदगी, ओर एकाकी-परिवार, सोशल मीडिया की चमक — इन सब ने टकराव को और तेज़ कर दिया है। युवा असफलताओं या बेरोज़गारी के दबाव में तेज़ी से बदलते कदम उठाते दिखते हैं, और बुज़ुर्गों को लगता है कि मूल्यों की गँवई हो रही है। यही गलतफहमी न केवल घरेलू कलह जन्म देती है, बल्कि राजनीति और समाज में भी विभाजन का कारण बनती है।
रिश्तों की दरार और अवसरों की हानी होती जा रही है कारण
फासला बढ़ता है तो परिवार संवादहीन हो जाता है; बच्चे घर छोड़ने लगते हैं, बुज़ुर्ग अकेलेपन में फँसते हैं; अनुभव का सदुपयोग नहीं होता और नवाचारी विचार जमीनी समर्थन खो देते हैं। सबसे भयावह बात यह है कि जनता-बोलने की असलियत (जैसे रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य) पर विचार करने की बजाय युवा-पुराने के बीच अविश्वास बन जाता है — और यही फासला समाज के लिए खतरनाक है।
सेतु-निर्माण हेतु बातचीत-आधारित समाधान चाहिए। यहां किसी को दोष देने की बात नहीं; आवश्यक है सामूहिक जागरूकता और ठोस कदम। कुछ सरल, व्यावहारिक और प्रभावी उपाय जो घर-गली-समाज में आज ही लागू हो सकते हैं —
1. घर में ‘साप्ताहिक बातचीत’ की परंपरा: हर हफ्ते कम से कम एक बार बैठकर बातें करें — न केवल कार्य या खर्च की, बल्कि सपनों, भय और अपेक्षाओं की। कड़े फैसले संवाद के बिना न लें।
2. डिजिटल-साक्षरता और अनुभव विनिमय कार्यक्रम: युवा बुज़ुर्गों को मोबाइल-बुनियादी बातें सिखाएँ; बुज़ुर्ग अपनी ज़िंदगी के किस्से, संघर्ष की सीख साझा करें। स्कूल-कॉलैब: ‘ग्रैंड-पैरेंट्स-डे’ जैसे इंटर-जनरेशनल कार्यक्रम।
3. समान व्यवहार-नियम: परिवार में शब्द-चयन का नियम रखें — अपमानजनक या तिरस्कारी भाषा वर्जित हो। “तुम्हें क्या पता” जैसी तिरछी टिप्पणियाँ रिश्तों में जहर घोलती हैं।
4. स्थानीय स्तर पर संवाद मंच:पंचायत-विद्यालय-महापंचायत स्तर पर जेनरेशन-डायलॉग सत्र आयोजित हों — रोजगार, शिक्षा, सामाजिक बदलाओं पर खुला संवाद।
5. साझा परियोजनाएं शुरू करें: वृक्षारोपण, स्थानीय पुस्तकालय, गांव-स्कूल में मिलकर काम — इससे सहयोग भाव जागेगा और दोनों पीढ़ियाँ एक दूसरे के नजरिए को समझेंगी।
6. मीडिया-जिम्मेदारी और नरेटिव बदलाव: मीडिया को चाहिए कि वे युवा-पुराने के संघर्ष को सनसनी नहीं, समाधान-केंद्रित रूप में पेश करें — उदाहरण, सफल इंटरेक्शन-स्टोरीज़ दिखाएँ।
युवा भी ज़िम्मेदार है इसलिए सुनना सीखो। युवा शक्ति परिवर्तन की ओर अग्रसर है, परन्तु सुनने और समायोजित होने की क्षमता भी जिंदा रखनी होगी। परंपराओं की अंधानुकरण नहीं, पर सम्मान में सीख है। अनुभव से सीखने में घमंड छोड़िए — वह आपके करियर को भी टिकाऊ बनाएगा।
बुज़ुर्गों को भी परिवर्तन स्वीकार करना होगा — समय बदल रहा है। युवा के तरीकों पर कटाक्ष छोड़ कर उनसे जुड़िए; उनकी चुनौतियों को समझिए। ज्ञान का संयोग ही भविष्य बनाता है — जब अनुभव और नवाचार साथ चलें।
सेतु बनाइए, खाई नहीं
समाज को चाहिए कि वह “पीढ़ियों की टक्कर” को टकराव नहीं, संवाद की दिशा में मोड़े। फासलों को सेतु में बदलना ही राष्ट्रीय विकास का मार्ग है। जब नई ऊर्जा और पुराना अनुभव साझा होंगे, तभी घरों में स्नेह बचेगा, समाज में स्थिरता आएगी और राष्ट्र की प्रगति असल स्वरूप पायेगी।
आइए, आज से हम छोटा-सा प्रण लें — हर घर में एक संवाद, हर मोहल्ले में एक सेतु। वरना पीढ़ियों के बीच बनता यह फासला किसी भी समाज के लिए बहुत महंगा पड़ेगा।