संपादकीय@एडवोकेट हरेश पंवार
भारतीय लोकतंत्र में उपराष्ट्रपति चुनाव सामान्यतः एक सहज प्रक्रिया मानी जाती रही है। लेकिन इस बार का परिदृश्य कुछ अलग रंग लेकर सामने आया है। पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अप्रत्याशित इस्तीफे के बाद अचानक उपजे राजनीतिक शून्य ने सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को नए समीकरण गढ़ने को विवश कर दिया है। वर्तमान राजनीतिक चर्चा पर विश्लेषण करते हुए यदि मैं बोलूंगा तो फिर कहोगे कि बोलता है।
भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन ने दक्षिण भारत से आने वाले, ओबीसी समुदाय के कद्दावर नेता सी.पी. राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाकर कई निशाने साधने का प्रयास किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसदीय दल की बैठक में जिस सौम्य और दिल को छू लेने वाले अंदाज में उनका परिचय कराया, उसमें यह संदेश छिपा था कि पार्टी इस चुनाव को केवल संवैधानिक औपचारिकता न मानकर राजनीतिक रणनीति की कसौटी पर कस रही है। गृह मंत्री अमित शाह का सहयोगी दलों के बीच सक्रियता भी यही संकेत देती है कि भाजपा उपराष्ट्रपति चुनाव को अपनी भविष्य की दक्षिण भारत रणनीति के केंद्र में रखे हुए है।
लेकिन राजनीति का खेल हमेशा सीधा नहीं होता। कांग्रेस समर्थित इंडिया महागठबंधन ने दक्षिण भारत के न्याय प्रिय सुप्रसिद्ध रिटायर्ड जज बी. सुदर्शन रेड्डी को मैदान में उतारकर भाजपा की सहज चाल को बाउंसर में बदल दिया है। यह कदम न केवल विपक्ष की सक्रियता का परिचायक है बल्कि यह संदेश भी देता है कि विपक्ष सत्ता पक्ष को निर्विरोध जीत की खुशी नहीं देने वाला।
यहां सवाल सिर्फ एक संवैधानिक पद की चुनावी औपचारिकता का नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति की चौसर में पत्तों की बाज़ी का है। क्रॉस वोटिंग की संभावनाओं के बीच यह चुनाव भाजपा और आरएसएस के भीतर की सुगबुगाहट, सहयोगी दलों के मिजाज और विपक्ष की एकजुटता की वास्तविक परीक्षा बनेगा।
बिहार में राहुल गांधी की वोट अधिकार यात्रा, चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगियों की बदलती नब्ज़ और विपक्षी एकता की आकांक्षा इस चुनाव को और रोमांचक बना रही है। यदि विपक्ष का प्रत्याशी जीत की स्थिति में आता है तो यह परिणाम केवल उपराष्ट्रपति पद तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि भारतीय राजनीति की दिशा और दशा पर गहरा प्रभाव डालेगा। संसदीय कार्रवाई पर विपक्ष का तेवर और अधिक मुखर होगा तथा भाजपा की “विजयी रथ” की रफ्तार पर अस्थायी ही सही, पर विराम लग सकता है।
सबसे बड़ी पहेली अभी भी पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का इस्तीफा ही है। स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर हटाए गए धनखड़ की चुप्पी, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की झुंझुनूं यात्रा की स्मृति और भाजपा की आंतरिक रणनीति का धुंधलका अब भी अंडरकरंट की तरह तैर रहा है। राजनीति में अक्सर मौन ही सबसे गहरे संकेत देता है।
दरअसल, भारतीय लोकतंत्र में उपराष्ट्रपति चुनाव चाहे औपचारिक ही क्यों न हो, इस बार यह राजनीति का “रोमांटिक क्षण” बन चुका है। एक ओर सत्ता पक्ष अपनी रणनीति के चाणक्य सूत्रों से इसे सहज बनाना चाहता है, तो दूसरी ओर विपक्ष इस अवसर को “राजनीतिक पुनर्जन्म” की तरह देख रहा है।
यह मुकाबला केवल संसद की ऊपरी कुर्सी के लिए नहीं है, बल्कि भारतीय राजनीति के आने वाले वर्षों के लिए माहौल तैयार करने की बिसात है। यही वजह है कि यह चुनाव लोकतंत्र के दर्शकों के लिए एक रोमांचक नाटक बन चुका है, जहां हर दृश्य अगले दृश्य की उत्सुकता बढ़ा रहा है।
उपराष्ट्रपति चुनाव भारतीय राजनीति की उस जटिलता और अनिश्चितता का जीवंत प्रतीक है, जिसमें हर मोड़ पर नया गुल खिलने की संभावना रहती है। यह केवल पद का चुनाव नहीं, बल्कि सत्ता और विपक्ष के बीच लोकतांत्रिक ताकत की नब्ज़ की परीक्षा है। परिणाम चाहे जो भी हो, लोकतंत्र की चौसर का यह रोमांच आने वाले समय में राजनीति की नई पटकथा लिखेगा।