संपादकीय@एडवोकेट हरेश पंवार
गाय — जिसे हमारी संस्कृति में “माता” का दर्जा दिया गया, आज राजनीति और दिखावे की ‘सौतेली संतान’ बन चुकी है। बात कितनी विडंबनापूर्ण है कि दिन में वही गाय मंदिर और गोशालाओं में पूजी जाती है, लेकिन रात को अगर किसी किसान के खेत में घुस जाए, तो उसी की पीठ पर डंडे बरसाए जाते हैं। यह दोहरापन केवल व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे समाज और व्यवस्था का है। यहां मैं बोलूंगा तो फिर कहोगे कि बोलता है।
आज हालत यह है कि गाय के नाम पर सरकारें करोड़ों-अरबों के अनुदान जारी करती हैं। कई गोशालाएं साल में 30 लाख से ऊपर की राशि प्राप्त करती हैं। ऊपर से भामाशाहों और श्रद्धालु जनता का दान अलग। लेकिन जरा गांव-शहर की सड़कों पर निकलकर देख लीजिए— वही “गौ माता” कचरे के ढेर में पॉलीथीन चरती मिलेंगी, सब्ज़ी मंडियों और हाईवे पर दुर्घटनाओं की वजह बनती नज़र आएंगी। सवाल उठता है कि आखिर वह पैसा कहां जा रहा है?
असलियत यह है कि गोशालाओं का सच ‘दिखावे की कुछ दुधारू गायों’ तक सीमित है, क्योंकि वहीं से दूध, घी और चंदा जुटाने का सीधा लाभ मिलता है। बैल और बछड़े की दुर्दशा तो और भी दर्दनाक है। कभी किसान की ताकत और समृद्धि का प्रतीक रहे बैल, आज ट्रैक्टरों के सामने ‘बेकार का बोझ’ बन गए हैं। खेत में घुस जाएं तो लठ्ठ खाते हैं, और गोशालाओं में उनके लिए कोई जगह नहीं। उनका ठिकाना अब सिर्फ सड़क और मंडियां बची हैं।
विडंबना यह भी है कि जो लोग खुद को “गौ रक्षक” और “गौ सेवक” कहते हैं, वही इस पवित्र आस्था को व्यापार और राजनीति का जरिया बनाए बैठे हैं। गाय के नाम पर धन वसूली और अनुदान हड़पने का गोरखधंधा चरम पर है। धर्म की आड़ में यह धंधा चल भी रहा है और समाज चुपचाप तमाशा देख रहा है।
दरअसल, गाय की असली दुर्दशा का कारण ‘अंधभक्ति और पाखंड’ है। अगर सचमुच हम गाय को “माता” मानते हैं, तो उसे भूख से मरने या सड़क पर हादसों में कुचलने क्यों छोड़ देते हैं? जब तक सरकार और समाज, दोनों मिलकर ईमानदारी से जवाबदेही तय नहीं करते, तब तक गाय केवल पोस्टरों और भाषणों की शोभा बनी रहेगी।
आज ज़रूरत है कि सरकार अनुदानों की कठोर मॉनिटरिंग करे, फर्जी “गौ सेवकों” पर शिकंजा कसे और हर गांव-शहर में आवारा गोवंश की देखरेख का ठोस इंतज़ाम हो। वरना यह सवाल हमेशा गूंजता रहेगा —
“गोशालाओं में अनुदान की मलाई कौन खा रहा है, और सड़कों पर भूखी क्यों घूम रही है हमारी गौ माता?”